Right to Disconnet: शिफ्ट के बाद कॉल-मैसेज का जवाब देने की जरूरत नहीं, बेल्जियम समेत कई देशों में
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क्या है राइट टु डिस्कनेक्ट?
राइट टु डिस्कनेक्ट नियम के तहत कोई भी अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को गाहे-बेगाहे कॉल, ईमेल या मैसेज करके परेशान नहीं कर सकता है। इसके अलावा संपर्क करने के लिए कम्युनिकेशन के दूसरे रास्तों का इस्तेमाल भी इस नियम के तहत गैरकानूनी माना गया है। भारत के लोगों के लिए राइट टु डिस्कनेक्ट (Right to Disconnect) नियम नया हो सकता है, लेकिन यूरोप के कई देशों में यह बेहद आम है। इस लिस्ट में अब नया नाम बेल्जियम का जुड़ा है। यहां एक फरवरी 2022 से यह नियम लागू हो जाएगा। फिलहाल, इस नियम से सरकारी सेवाओं में कार्यरत लोगों को ही सहूलियत मिलेगी।
इस नियम के तहत अब बॉस सरकारी सेवाओं में कार्यरत उन कर्मचारियों से संपर्क नहीं कर सकेंगे, जिनकी शिफ्ट पूरी हो चुकी होगी या जो कर्मचारी छुट्टी पर होंगे। हालांकि, नियम में थोड़ी ढील भी बरती गई है। किसी आपात स्थिति या बेहद असामान्य हालात में कर्मचारी से संपर्क किया जा सकता है, लेकिन उसके लिए अधिकारी को वाजिब स्पष्टीकरण भी देना होगा। गौर करने वाली बात यह है कि किसी भी देश में आपात सेवाओं जैसे डॉक्टर, सेना, पुलिस आदि में इस नियम को लागू नहीं किया गया है।
किन देशों में लागू है यह नियम और क्या हुई कार्रवाई?
बेल्जियम से पहले यह नियम कई देशों में लागू हो चुका है। इस कड़ी में फ्रांस, इटली, जर्मनी, स्लोवाकिया, फिलीपींस, कनाडा और आयरलैंड आदि देश शामिल हैं। गौरतलब है कि इसी नियम के तहत 2012 में ही कार निर्माता कंपनी फॉक्सवैगन ने शाम के वक्त शिफ्ट खत्म होने के बाद से लेकर अगले दिन सुबह ड्यूटी शुरू होने तक ईमेल भेजने पर रोक लगा दी थी। 2017 में यह नियम फ्रांस में लागू किया गया, जिसके तहत वर्क फ्रॉम होम के तहत काम करने वालों लाया गया। इन नियमों का उल्लंघन करने पर 2018 के दौरान पेस्ट कंट्रोल कंपनी 60 हजार यूरो का जुर्माना लगाया गया था।
भारत में इस नियम का क्या भविष्य ?
बेल्जियम में इस नियम को लागू करने की खबर सामने आने के बाद भारत में भी इसकी चर्चा काफी तेजी से शुरू हो गई है। दरअसल, कोरोना महामारी की वजह से इस वक्त करीब 50 से 60 फीसदी लोग वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं और उन्हें सिद्धार्थ की तरह कई बार परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। इसके चलते भारत में भी ऐसा नियम लाने की आवाज उठ रही है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारतीय में भी राइट टु डिस्कनेक्ट को चर्चा हो चुकी है?
अगर नहीं तो हम आपको बता दें कि 2019 के दौरान एनसीपी की सांसद सुप्रिया सुले ने संसद की कार्यवाही के दौरान लोकसभा में राइट टु डिस्कनेक्ट बिल पेश किया था। इसके तहत प्रोफेशनल लाइफ के कभी खत्म न होने का हवाला दिया गया था। साथ ही, उन कंपनियों को दायरे में लाने की बात कही गई थी, जिनमें 10 से ज्यादा कर्मचारी हैं। अगर यह कानून बन जाता तो ऐसी कंपनियों को कर्मचारी वेलफेयर कमेटी का गठन अनिवार्य रूप से करना पड़ता। वहीं, अपनी शिफ्ट के बाद कॉल, मैसेज या ईमेल का जवाब नहीं देने पर कर्मचारी के सामने किसी भी तरह की जवाबदेही नहीं होती। जब यह बिल संसद में पेश किया गया, उस वक्त वर्क प्रेशर की वजह से भारतीयों की जिंदगी पर पड़ने वाले असर का भी हवाला दिया गया था। गौर करने वाली बात यह है कि 2019 के बाद भारत में इस बिल पर कभी चर्चा नहीं हुई।
भारत में इस कानून के रास्ते में अड़ंगा क्यों?
जानकार बताते हैं कि भारत में इस नियम को लागू करने में काफी अड़ंगे हैं। दरअसल, भारत में जब भी हम वर्क कल्चर की बात करते हैं तो कर्मचारियों के काम करने के तरीकों पर भी सवाल उठते हैं। दरअसल, भारत में काफी जगह देखा जाता है कि कर्मचारी समय को लेकर पाबंद नहीं होते हैं। समय पर दफ्तर नहीं पहुंचना करीब 90 फीसदी लोगों की आदत में शुमार होता है। अगर हम इसकी तुलना दूसरे देशों से करते हैं तो वहां ऑफिस की टाइमिंग को लेकर कर्मचारी काफी संजीदा नजर आते हैं। वे अपने दफ्तर पांच मिनट देरी की जगह पांच मिनट पहले पहुंचना पसंद करते हैं। इसके अलावा शिफ्ट टाइमिंग में भी अपने व्यक्तिगत कार्यों को निपटाते रहते हैं। हालांकि, यह बात भी है कि भारत में सभी कर्मचारी इस तरह काम नहीं करते हैं, लेकिन जब वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाते हैं तो प्रबंधन उनके ही अन्य साथियों का हवाला देते हुए पल्ला झाड़ लेता है।

अभिश्रेष्ठ मिश्रा
यूपी पत्रिका डेस्क
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